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विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नाम का नगर था । वहां के राजा चन्द्रप्रभ थे । उन्हें कई विद्यायें सिद्ध थीं । एक दिन राजा अपने पुत्र को राज्य सौंप कर यात्रा को चल दिये । वे चलते-चलते दक्षिण देश के मथुरा नगर में पहुंचे । वहां एक गुप्ताचार्य मुनि थे । उनके पास क्षुल्लक बन कर रहने लगे परन्तु सब विद्यायें नहीं छोड़ीं ।

धर्मोपदेश सुनते-सुनते एक दिन क्षुल्लक के विचार हुआ कि उत्तर प्रान्त की मथुरा नगरी को जावें । उन्होनें मुनिराज से कहा कि आपको कोई संदेशा कहना हो तो कहिये । मुनिराज ने उत्तर दिया कि वहां सुव्रत मुनि हैं उनको नमस्कार और रानी रेवती से धर्मवृद्धि कहना ।

क्षुल्लक जी को मालूम था कि वहां ग्यारह अंग के जानने वाले भव्यसेन मुनि भी हैं परन्तु उनके लिये गुप्ताचार्य ने कुछ भी नहीं कहा । इसलिये क्षुल्लक जी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होनें फिर से दुहराया कि हे महाराज किसी और से तो कुछ नहीं कहना है ? मुनिराज ने उत्तर दिया कि नही ।

तब क्षुल्लक जी चुपचाप चले गये और वहां पहुंच कर इस बात का पता लगाना चाहा कि गुप्ताचार्य ने भव्यसेन को नमस्कार क्यों नहीं कहा, उन दोनों को ही क्यों कहा ?

पहले वे सुव्रत मुनि के पास गये । उनका उत्तम चरित्र और वात्सल्यभाव देखकर बहुत प्रसन्न हुये । उन्हें गुप्ताचार्य जी की ओर से नमस्कार कहा उत्तर में धर्मवृद्धि सुनकर वहां से चल दिये ।

पश्चात् वे भव्यसेन के पास गये और उन्हें भी नमस्कार किया पर अभिमानी भव्यसेन ने क्षुल्लक जी की ओर देखा भी नहीं । ठीक है, मिथ्यात्व के उदय में ग्यारह अंग तक का ज्ञान भी जीव को हितकर नहीं होता । जब भव्यसेन बस्ती के बाहर टट्टी फिरने निकले तो क्षुल्लक भी साथ हो गये और विद्या के बल से वहां हरियाली कर दी ।

जैन शास्त्रों में हरी वनस्पति को सजीव कहा है । जैन मुनि उसकी विराधना नहीं करते, पर भव्यसेन ने उसकी कुछ भी परवाह नहीं की और वहीं टट्टी फिर ली । तब क्षुल्लक जी ने अपनी विद्या के बल से पास ही एक तालाब बना दिया तो भव्यसेन ने उस तालाब से ही बिना छाना पानी ले लिया । तब क्षुल्लक जी को पूरा भरोसा हो गया कि भव्यसेन नहीं अभव्यसेन हैं इसी कारण गुप्ताचार्य ने इन्हें नमस्कार नहीं भेजा है ।

इसके बाद वे राजा वरुण की रानी रेवती की परीक्षा के लिये गये और विद्याबल से चतुमुख ब्रह्मा का रूप धर पूर्व दिशा की ओर सिंहासन पर बैठ गये । यह जानकर कि साक्षात् ब्रह्मा पधारे हैं, सब बस्ती के लोग उनकी पूजा को जाने लगे । यह वृतांत राजा वरुण और रानी रेवती से भी कहा गया । रानी ने उत्तर दिया कि वहसच्चा ब्रह्मा नहीं है, कोई मायावी देव होगा । दूसरे दिन क्षुल्लक जी दक्षिण दिशा की ओर शंख, चक्र ,गदा, तलवार आदि लेकर चतुर्भुज विष्णु बन कर गरुड़ पर बैठ गये । पहले के समान सब लोग वन्दना को गये और रानी रेवती से कहा गया । रानी ने उत्तर दिया कि वह सच्चा विष्णु नहीं है कोई मायावी देव होगा ।

तीसरे दिन क्षुल्लक जी पश्चिम दिशा की ओर सर पर जटा और शरीर में राख लगाकर शंकर का रूप बनाकर बैल पर बैठ गये । सब ही लोग दर्शन को गये, पर रेवती ने कहा कि जैन शास्त्रों में रुद्र ग्यारह कह हैं, वे हो चुके हब बारहवां होना असम्भव है ।

अन्त में क्षुल्लक जी ने अपनी विद्या के बल से उत्तर की ओर झूठा समवसरण रचा । मानस्तम्भ और गंधकुटी आदि बनाये । बनावटी इन्द्र, गणधर, मुनि और बारह सभाओं की रचना की और आप महावीर भगवान बन कर दिव्यध्वनि करने लगे । अब तो लोगों का भक्ति का ठिकाना नहीं रहा । लोगों को पूरा विश्वास हो गया कि अब रेवती रानी अवश्य ही दर्शन को आवेगीं और सबने उसे खूब समझाया भी परन्तु वह जानती थीं कि तीर्थंकर चैबीस होने थे सो हो गये, अब पच्चीसवां क्योंकर सम्भव है , इसलिये वह वहां भी नहीं गयीं ।

क्षुल्लक जी ने जब रानी को अपने मायाजाल में फूंसते नहीं देखा, तब समझ लिया कि इसका जैनधर्म पर सच्चा विश्वास है । क्षुल्लक जी ने यह भी सोच लिया कि महारानी रेवती सच्ची श्रद्धा वाली हैं । इसी से गुप्ताचार्य ने इन्हें धर्मवृद्धि कह भेजी है और भव्यसेन मिथ्यादृष्टि हैं इससे उनका नाम नहीं लिया ।

सारांश - हम सबको चाहिये कि रानी रेवती के समान सच्चे और झूंठे का विचार रखें, भव्यसेन के समान पाखंड न करें ।