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इसी भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगर था । वहां राजा सिंहसेन राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम रामदत्ता था । उसी नगर में एक पुरोहित रहता था उसका नाम श्री भूत था । वह बड़ा ही ठगिया था । लोगों को धोका देने के लिये उसने अपने जनेऊ में एक छोटा सा चाकू बांध रखा था और लोगों से कहा करता था कि यदि मैं भूल से झूंठ बोल जाऊं तो इस चाकू से अपनी जीभ काट डालूं । उसने अपने आप ही अपना नाम सत्यघोष रख लिया था । बस्ती के लोग उसका बहुत भरोसा करते थे परन्तु वह सत्यघोष किसी-किसी की धरोहर तो लौटा देता था और कई मनुष्यों की नहीं लौटाता था । कोई-कोई राजा के पास जाकर उसकी नालिश भी करते थे परन्तु सत्यघोष ने राजा के चित्त पर अपना बड़ा प्रभाव जमा रखा था इससे राजा किसी की भी नहीं सुनता था ।

एक दिन पझखण्ड नगर का रहने वाला समुद्रदत्त नाम का व्यापारी सिंहपुर नगर में आया । उसकी इच्छा परदेश में जाकर व्यापार करने की थी । उसने सोचा कि कहीं व्यापार में टोटा पड़े या जहाज आदि डूब जावे तो यहां पर रखा हुआ धन काम आवेगा । इसलिये उसने सत्यघोष के पास पांच रत्न जमा कर दिये और रत्नद्वीप को चला गया ।

वहां कई दिनों तक रह कर उसने बहुत सा धन कमाया । जब लौटकर आने लगा तो वैसा ही हुआ जैसा कि उसने सोचा था अर्थात् उसका जहाज टकरा कर फट गया जिससे उसके साथी और सब धन समुद्र में डूब गया । बेचारा समुद्रदत्त जहाज के एक टुकड़े के सहारे तैरता कठिनाई से किनारे पर आ सका और सीधा सत्यघोष के पास चला आया ।

सत्यघोष ने जहाज डूबने की बात पहले ही सुन ली थी । समुद्रदत्त को आता देखकर उसने समझ लिया कि यह अपने रत्न अवश्य मांगेगा । इसलिये सत्यघोष ने एक फन्द बनाया वह अपने पास के बैठने वालों से कहने लगा कि आज कुछ अशुभ होनहार है । देखों वह भिखारी सा आ रहा है जान पड़ता है कि वह वही मनुष्य है जिसका जहाज कल डूब गया सुना था । धन डूब जाने से वह पागल सा हो गया दिखता है न जाने मुझसे क्या मांगेगा ।

इतने में समुद्रदत्त आ ही गया और नमस्कार करके पांचों रत्न मांगने लगा । तब सत्यघोष ने पास के बैठने वालों से कहा कि देखो जी मैनें जो पहले ही कहा था वही निकला और समुद्रदत्त को उत्तर दिया कि मैं तो तुझे पहचानता भी नहीं हूं कि तू कौन है ? फिर तेरे रत्न मेरे पास कहां से आये ? धन डूब जाने से तू पागल सा हो गया दिखता है किसी और के यहां रखकर भूल से यहां मांगने आ गया मालूम पड़ता है ।

सत्यघोष ने समुद्रदत्त से ऐसी बहुत सी बातें कहीं और खूब डांट लगाई । फिर उसे अपने नौकरों के साथ राजा के पास भेज दिया और कहला भेजा कि यह दरिद्री हमें बिना कारण कष्ट देता है । आप इसका प्रबंध कर दें । राजा सिंहसेन इस झूठे सत्यघोष को सच्चा सत्यघोष समझते थे इसलिये उन्होनें बेचारे समुद्रदत्त की एक भी नहीं सुनी, झूंठा कह कर निकलवा दिया ।

पापी सत्यघोष के द्वारा ठगा जाने से बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल सा हो गया । वह बस्ती और बाजार में जहां तहां कहता फिरता था कि सत्यघोष मेरे पांच रत्न नहीं देता है पर किसी ने नहीं माना, सब लोग उसे पागल बताने लगे । समुद्रदत्त दिन भर शहर में रोता हुआ घूमता फिरता था और रात को राजा के महल के पीठे एक झाड़ पर चढ़कर पुकारा करता था कि मैं सत्यघोष के पास पांच रत्न जमा कर गया था अब वह नहीं देता है । ऐसा करते उसे छह माह हो गये । एक दिन महारानी रामदत्ता का एक ही वाक्य से चिल्लाना सुनकर राजा से कहा कि आप सत्यघोष के ढोंग ही में न भूल जावें, बिचारे समुद्रदत्त का ठीक न्याय करें ।

राजा ने रानी के कहने से समुद्रदत्त को बुलवाया तो उसने सब सत्य वार्ता राजा से कह सुनाई । राजा ने रानी से कहा कि समुद्रदत्त की बात तो सच जान पड़ती है पर इसका भेद खुलने का उपाय नहीं सूझता । रानी ने कुछ देर तक सोच विचार कर राजा से कहा कि मैं इसका उपाय सोचूंगी ।

दूसरे दिन रानी ने सत्यघोष को अपने महलों में बुलवाया और चैपड़ खेलने को कहा । पुरोहित महाराज रानी का कहना न टाल सके और डरते-डरते चैपड़ खेलने लगे । रानी ने पहली ही बाजी में पुरोहिज जी की अॅंगूठी जीत ली । वे उन्हें तो खेल ही खिलाती रहीं और चुपचाप दासी को बुलाकर कहा कि तुम सत्यघोष के घर जाओ और उनकी स्त्री से कहो कि सत्यघोष ने यह निशानी तुम्हारे पास भेजी है और समुद्रदत्त के पांच रत्न मॅंगाये हैं ।

दासी उस सत्यघोष के घर गई और उसकी स्त्री से कहने लगी कि सत्यघोष ने यह अॅंगूठी पहिचान के लिये भेजी है और समुद्रदत्त के पांच रत्न मॅंगाये हैं ।

पुरोहितन ने दासी को उत्तर दिया कि यह अॅंगूठी पुरोहित की जैसी जान पड़ती है पर उन्हीं की है या नहीं इसका ठीक विश्वास नहीं होता ।

दासी लौट कर रानी के पास पहुंचने ही पाई थी कि वहां रानी ने पुरोहित जी का चाकू और जनेऊ भी जीत लिया था जब दासी ने पुरोहितन का उत्तर रानी को सुनाया तब रानी ने वह जीता हुआ जनेऊ और चाकू दासी को सौंप कर फिर पुरोहितन के पास भेजा और पुरोहित जी को खेल में लगाये रही ।

दासी फिर सत्यघोष की स्त्री के पास गई और जनेऊ तथा चाकू उसके हाथ में देकर कहने लगी कि अब भी आपको सन्देह है ? अब कृपा कर समुद्रदत्त के पांचों रत्न मुझे दे दीजिये ।

चाकू और जनेऊ देखकर सत्यघोष की स्त्री को पक्का भरोसा हो गया । वह दासी की बातों में आ गई इससे उसने पांचों रत्न दासी को दे दिये । दासी ने जाकर पांचों रत्न चुपचाप रानी को दे दिये ।

रानी ने प्रसन्न होकर खेल समाप्त किया और पुरोहित जी घर को विदा हुये । रानी ने पांचों रत्न राजा के सामने रख दिये और रत्नों का पता लगाने की सब बात कह सुनाई । महाराज ने सिपाही भेज कर सत्यघोष को तत्काल पकड़ बुलाया । बिचारे पुरोहित जी बहुत घबराये पर उन्हें क्या मालूम था कि उनका भाग्य फूट चुका है ।

राजा ने रानी के दिये हुये रत्नों को अपने पास के अन्य बहुत से रत्नों में मिला दिया और समुद्रदत्त को बुला कर कहा कि इन रत्नों में से अपने रत्न पहचानों । समुद्रदत्त ने वैसा ही किया और उन सब रत्नों में से अपने रत्न उठा कर प्रसन्न हुआ । जब समुद्रदत्त ने केवल अपने ही रत्न उठाये, तब तो सत्यघोष की ठगाई राजा की समझ में आ गई । राजा ने मंत्रियों की सलाह से तीन दण्डों में से कोई एक दण्ड सहने के लिये सत्यघोष से कहा - या तो तीन थाली गोबर खाओ या हमारे पहलवान के बत्तीस घूंसे सहो अथवा अपना सब धन दे दो ।

पापी सत्यघोष लज्जा के मारे मर ही चुका था । उसने पहले तो गोबर खाया, पर उतना गोबर उससे नहीं खाया गया तब पहलवान के घूंसे लगवाने को राजा से कहा, परन्तु जब पहलवान के एक ही घूंसे में वह अधमरा हो गया तो लाचार हो उसे अपना सब धन राजा को देना पड़ा । इस प्रकार उस मुर्ख ने तीनों ही दण्ड भोगे और थोड़े ही दिनों में खोटे भावों से मर कर कुगति में गया । इस कहानी से हमें सच्चाई से रहना सीखना चाहिये ।