कौसाम्बी नगरी में राजा सिंहरथ राज्य करते थे । वे बड़े न्यायवान थे । उनकी स्त्री का नाम विजया था । उस नगरी में एक चोर रहता था । वह साधु के वेष में रहता था और बड़ के वृक्ष की डाल से सींका बांधकर उसमें बैठ जाता था । लोग उसके पास जाते, तो उनसे कहा करता था कि दूसरे की वस्तु की तो बात ही क्या मैं तो धरती तक नहीं छूता । दिन भर उसका यही हाल रहता था, पर रात को बस्ती में जाकर चोरी किया करता था । उसका साधुवेष और मीठी बातों के कारण लोगों को उस पर इतना विश्वास बढ़ गया था कि किसी को उस पर जरा भी सन्देह नहीं होता था । जब शहर में बहुत सी चोरियां हुईं और उनका पता नहीं लगा, तब राजा ने थानेदार को बुलाकर खूब डांट लगाई । बेचारा थानेदार जहां-तहां पता लगाता फिरा, पर कुछ पता नहीं लगा, अन्त में हार मानकर इसी चिन्ता में बैठा था कि इतने में एक भिखारी ब्राह्मण उसके पास पहुंचा और भोजन के लिये उससे कुछ मांगा । थानेदार ने उत्तर दिया कि भाई मुझे तो प्राणों की पड़ रही है और तुझे भीख जोड़ने की पड़ी है। भिखारी ब्राह्मण ने थानेदार से इसका कारण पूंछा । पहले तो थानेदार ने कुछ नहीं कहा, पर ब्राह्मण के बार-बार पूंछने पर उसने सब हाल कह सुनाया । ब्राह्मण ने सोच - विचार कर कहा कि चोरी करने वाला वही मनुष्य होगा जो सच्चाई के लिये बहुत प्रसिद्ध होगा क्योंकि बहुत से मनुष्य अपनी सच्चाई का बड़ा ढ़ोंग फैलाते हैं और अन्त में वे बड़े ठग निकलते हैं । थानेदार ने कहा कि यहां एक साधु बड़ा सन्तोषी मनुष्य है । मुझे तो उस बेचारे पर बिलकुल सन्देह नहीं होता । मैं उसे महात्मा समझता हूं । ब्राह्मण बोला आप उसकी सच्चाई का ठीक पता लगावें । जिसे आप महात्मा बतलाते हैं वही चोर निकलेगा । इसके लिये मैं अपने ऊपर बीती हुई एक वार्ता आपको सुनाता हूं । थानेदार ने उत्तर दिया अच्छा कहिये । ब्राह्मण कहने लगा कि मेरी स्त्री ने अपने आपको महासती प्रसिद्ध कर रखा था । जब वह बच्चे को दूध पिलाती थी तो अपने दोनो स्तन कपड़े से खूब ढॅंक लेती थी । केवल काली बुट्टी निकाल कर बच्चे के मॅंुह में दबा देती थी, बच्चे को अपनी छाती नहीं छूने देती थी । कारण पूंछने पर उत्तर दिया करती थी कि बच्चा भी परपुरुष है । यदि परपुरुष मेरी छाती छू लेवेगा तो मेरा शील भंग हो जावेगा । पर यह सब उसका ढं़ोंग ही निकला । क्योंकि मैनें अपनी आंखों से उसे दूसरों के साथ व्यभिचार करते देखा और तभी से मैं संसार से विरक्त होकर तीर्थयात्रा को निकल पड़ा हूंॅ । मैं पहले भिखारी नहीं था मेरे पास बहुत धन था । उसका मैनें सोना खरीद लिया था और उसे एक पोली लाठी में भर कर उसका मुॅंह बन्द कर रखा था । उस लाठी को मैं अपने पास रखता था । यात्रा करते समय मुझे एक लड़का मिल गया और वह यात्रा में साथ रहने लगा । पहले मुझे उस लड़के का विश्वास नहीं था, इसलिये मैं उस लाठी को उस लड़के से बचाये रखता था । एक दिन शाम को एक कुम्हार के यहां मैं और वह लड़का ठहरे । सबेरा होने पर हम दोनों ने चल दिया और बहुत दूर निकल गये । तब वह लड़का सिर पर हाथ रखकर कहने लगा कि अरे रे मुझसे बड़ी भूल हो गयी है । जिसके यहां हम और आप रात को ठहरे थे उसका यह तिनका मेरी पगड़ी में चिपट कर चला आया है । मैं चोरी का त्यागी हूं । उसका तिनका उसके घर देने को जाता हूं । लड़का कुम्हार के घर तक गया और तिनका सौंप कर वापस चला आया । तब से मैं उस पर बड़ा भरोसा करने लगा था । एक दिन शाम के समय एक गांव में वह लड़का और मैं ठहरा । मेरे पास भोजन समाप्त हो गया था । मैनें साथ के लड़के से भोजन लाने को कहा । लड़का कहने लगा कि भोजन लेकर लौटते-लौटते रात्रि बहुत हो जावेगी, इससे अपनी यह लाठी मुझे दे दीजिये, रास्ते में कुत्ते आदि को मारने के काम आवेगी उसकी ये बातें सुनकर मैनें लाठी उसे दे दी । वह पापी हाथ में लाठी लेकर भोजन लेने को चला गया और फिर नहीं आया । ब्राह्मण ने रोते-रोते कहा कि मैनें उसका बहुत पता लगाया पर उसका फिर पता नहीं चला । इसके सिवाय ब्राह्मण ने और कई ढ़ोंगी ठगों की बातें सुनाई और ऊंचे स्वर से कहा कि जिस तापसी को आप बड़ा सच्चा बतलाते हैं, वही चोर होगा । मैं आज ही रात्रि में उसका पता लगाऊंगा । ब्राह्मण की इस बातचीत का थानेदार पर बड़ा असर पड़ा । उसने तपस्वी की परीक्षा करने को उस ही ब्राह्मण से कहा । रात होने पर वह ब्राह्मण तापसी के आश्रम की ओर से निकला तो तापसी के चेलों ने उसे टोंका कि तू कौन है ? ब्राह्मण बड़ी दीनवाणी से कहने लगा कि मैं रास्तागीर ब्राह्मण हूं, मुझे रात को सूझता नहीं है । यहां कहीं एक कोने में मुझे ठहर जाने दो । सबेरे कुछ दिखने लगेगा तब चला जाऊंेॅगा । चेलों ने यह हाल अपने गुरु से कहा तो तापसी ने सोचा कि यह अन्धा है, हमारे काम में कुछ बाधा नहीं डाल सकता । इसलिये उस ब्राह्मण को एक कोने में सोने की आज्ञा दे दी । आज्ञा मिलने पर वह ब्राह्मण एक कोने में पड़ रहा और चुपचाप टकटकी लगा कर सब हाल देखने लगा । आधी रात को जब सुनसान हुई, तब तापसी और उसके चेलों ने नित्य का काम चालू किया । वे शहर में गये और बहुत सा धन चुरा कर लाये । तापसी के आश्रम के पास ही एक कुआ था उसमें वह चोरी का सब धन डालते गये । उस कुए के पास एक गुफा थी । उसमें तापसी के स्त्री बच्चे रहते थं । उन सबके भोजन आदि का खर्च चोरी के धन से हुआ करता था । यह सब हाल ब्राह्मण ने चुपचाप देख लिया और सबेरा होने पर थानेदार और राजा को सूचित कर दिया । राजा ने तापसी और उसके चेलों को तुरन्त ही पकड़ बुलाया और निर्णय कर पापी तापसी को फांसी का दण्ड दिया । तब वह खोटे भावों से मर कर नरक गया । तापसी के चेलों को भी कारावास हुआ । सारांश - चोरी महापाप है । इस भव में और परभव में दुःखदायक है, ऐसा जानकर चोरी नहीं करनी चाहिये ।