उज्जैन में राजा श्रीवर्मा राज्य करते थे । जैन घर्म पर उनका बड़ा विश्वास था उनकी सभा में बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये चार मंत्री थे जो चारो ही मिथ्यात्वी थे । एक दिन महाराज अकम्पनाचार्य अपने सात सौ मुनि शिष्यों सहित उज्जैन के बगीचे में आये । उन्होनें अवधिज्ञान से जान लिया कि यहां के राज्यमंत्री मिथ्यात्वी हैं । इसलिये अपने शिष्यों से यह कह रखा था कि सब साधु मौन रहें, कोई आवे तो बिलकुल बातचीत नहीं करें । गुरु की यह आज्ञा सुन कर सब मुनि धर्म ध्यान में लीन हो गये । मुनिसमूह आया जान नगर के लोग उनकी पूजा वन्दना को जाने लगे । राजा उन्हें जाते देख कर विचार कर रहे थे कि ये लोग कहां जाते हैं । इतने में बाग का माली सब ऋतुओं के फलफूल लेकर आया और नमस्कार करके राजा से कहने लगा कि बगीचे में सात सौ मुनिराज पधारे हैं, जिससे बाग के सब वृक्षों में फल फूल गये हैं और बड़ी शोभा हो रही है । यह सुनकर राजा ने कहा कि हम भी मुनिराजों के दर्शन करेगें । परन्तु चारो मंत्री जैनमुनियों की निन्दा करने लगे, पर राजा ने उनकी एक न मानी और रनवास सहित बड़े साज बाज से साधु वन्दना को निकले । तब तो बेचारे मंत्रियों को भी राजा के साथ जाना पड़ा । राजा ने वहां पहुंच कर उन वीतराग मुनियों की भक्ति सहित वन्दना की, परन्तु किसी मुनि ने उन्हें आर्शीवाद नहीं दिया । जब राजा लौट पड़े तब साथ के मन्त्री उनसे कहने लगे कि ये मुनि मूर्ख हैं, इसी कारण कुछ नहीं बोलते हैं इनको कुछ ज्ञान होता तो अवश्य ही बातचीत करते । वे ऐसी निन्दा करते जा रहे थे और शहर से श्रुतसागर मुनि आहार लेकर आ रहे थे । उन्हें आते देख मंत्रियों ने महाराज से कहा, देखिये उन मुनियों में से यह बैल कैसा फूला हुआ आ रहा है । श्रुतसागर को मौन धारण करने की गुरु आज्ञा मालूम नहीं थी । वे गुरु की आज्ञा होने के पहिले ही शहर में चले गये थे, इसलिये वे ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ करने जम गये और चारों ब्राह्मणों को हरा दिया । फिर श्रुतसागर मुनि अपने गुरु के पास आये और वहां का हाल सुनाया । तब गुरु कहने लगे कि तुमने यह भला नहीं किया । अब तुम शास्त्रार्थ के स्थान पर खड़े रहो नहीं तो सब साधुओं पर विपदा आना सम्भव है । गुरु की ऐसी आज्ञा होने पर श्रुतसागर मुनि ने उन्हें नमस्कार करके वहां से चल दिये और शास्त्रार्थ के स्थान पर खड़े होकर ध्यान में लीन हो गये । इन मंत्रियों को राजा के सामने हारने से बड़ा क्रोध आया और उन्होनें सब मुनियों को मार डालने की तैयारी की । रात को वे चारों हथियार लेकर आये और रास्ते में श्रुतसागर मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे कि इसी ने हमारा अपमान किया है अतः पहले इसी का काम तमाम करना चाहिये । इसलिये चारों ने एक साथ मुनिराज पर तलवारें उबारीं, परन्तु नगर के देवता ने उन चारों को कील दिया और वे तलवार उबारे जैसे के तैसे खड़े रह गये । जब सबेरे राजा को यह हाल मालूम हुआ तब वे वहां गये और उन चारों की बुरी दशा करके उन्हें देश से निकाल दिया । वे चारों पापी भटकते भटकते हस्तिनापुर में पहुंचे और वहां के राजा पझ के मंत्री बन कर रहने लगे । राजा पझ के पिता महापझ और छोटे भाई विष्णुकुमार मुनि हो गये थे । इससे कुम्भक नगर का राजा सिंहबल उपद्रव करने लगा था । राजा पझ को उसकी बड़ी चिन्ता रहती थी और उसी चिन्ता के कारण वे दुबले रहते थे । जब बलि मंत्री ने उनसे निर्बलता का कारण पूंछा तब उन्होनें सिंहबल का हाल कह सुनाया । उसे सुनकर राजा से आज्ञा लेकर वे चारों मंत्री कुम्भक नगर गये और छल से सिंहबल को पकड़ कर हस्तिनापुर ले आये । सिंहबल ने राजा पझ की शरण में आकर उनसे क्षमा मांगी, तब उन्हें बहुत सन्तोष हुआ और सिंहबल को क्षमा प्रदान की । राजा पझ ने बलि आदि की होशियारी पर प्रसन्न होकर कहा तुम्हें जो कुछ इनाम मांगना हो, मांग लो । यह सुनकर उन्होनें कहा हे महाराज हम इनाम अभी नहीं चाहते, जब आवश्यकता होगी मांग लेवेगें । कुछ दिनों बाद वे ही अकम्पनाचार्य जहां तहां उपदेश करते करते हस्तिनापुर पहुंचे । सात सौ मुनि भी उनके साथ थे । उनका विचार था कि बरसात में यहीं रहेगें । जब यह बात बलि आदि को मालूम हुई तब वे बहुत घबराये और सोचने लगे कि राजा पझ जैनी हैं, यदि उन्हें उज्जैन का हाल मालूम हो जावेगा, तो हम फिर विपदा में पड़ेगें , इसलिए उन चारों ने राजा पझ के पास जाकर कहा कि हे महाराज जो आपने हमें इनाम देने को कहा था सो अब काम आ पड़ा है, कृपा कर आप हमें सात दिन के लिये अपना राज्य दे दीजिये । राजा पझ ने सात दिन के लिये मंत्रियों को राजा बना दिया और वे रनवास में रहने लगे । वे चारो मंत्री राज्य पाकर मुनियों के नाश का उपाय सोचने लगे । उन्होनें मुनियों के आसपास एक बाड़ा बनवाया । बाड़े के भीतर बहुत सी लकडि़यां जलवा कर खूब धुंआ कराया । ब्राह्मणों द्वारा पशुवध पूजा शुरू कराई गई और पशुओं के बदले मुनियों को हवन में जला देने की आज्ञा दी । बहुत सी गली सड़ी , अशुद्ध दुर्गन्धित और जूठी वस्तुएं मुनियों के ऊपर डलवाई , ईंट , पत्थर, कंडे आदि भरवाये और भांति-भांति के कष्ट उन मुनियों को दिये । परन्तु धन्य हैं शत्रु मित्र पर समता रखने वाले मुनियों ने धैर्य नहीं छोड़ा । उन्होनें प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक यह संकट नहीं टलेगा अन्न जल का त्याग है और ध्यान में लीन होकर आत्मचिन्तन करने लगे । वह श्रावण सुदी पूर्णमासी का दिन था इससे आकाश में श्रवण नक्षत्र का उदय था । साधुओं के साथ ऐसा अन्याय देखकर वह नक्षत्र कांपने लगा । उसे कांपते देख मिथिलापुरी में भ्राजिष्णु क्षुल्लक ने ज्योतिष द्वारा जान लिया कि कहीं मुनियों के ऊपर घोर उपसर्ग हो रहा है । इसलिये उन्होनें यह बात विष्णुसूरि गुरु से कही तब उन्होनें अपने ज्ञानवल से कहा कि अकंपनाचार्य के संघ पर बलिराजा ने बड़ा उपद्रव किया है और पुष्पदंत विद्याधर को बुलाकर कहा कि धरणी भूषण पर्वत पर जाकर विक्रया ऋद्धिधारक विष्णुकुमार मुनि से यह बात कहो । पुष्पदन्त शीघ्र ही उनके पास गये और सब हाल सुनाया । महाराज विष्णुकुमार को मालुम ही नहीं था कि मुझे विक्रया ऋद्धि प्राप्त हुई है, इसलिये उन्होनें परीक्षा के लिये अपना एक हाथ बढ़ाया तो वह मानुषोत्तर पर्वत तक बढ़ता ही गया । वे मुनि शीघ्र ही हाथ समेट कर हस्तिनापुर को गये और राजा पझ के पास जाकर कहा - भैया तुमने यह अच्छा नहीं किया , मुनियों को ऐसा कष्ट पहुंचाया । अपने वंश में अनेक राजा हो गये हैं जो धर्मपालन कर स्वर्ग और मोक्ष को गये हैं,परन्तु तुम कुल कलंक उपजे हो । अब शीष्र ही मुनियों का संकट दूर करो । राजा ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । मैं बलि को वचन देकर विवश हो गया हूं, अब मेरे वश की बात नहीं है । आप समर्थ हैं, मुनियों की विपत्ति टालने का उचित उपाय करें । तब विष्णुकुमार मुनि वहां से चल दिये और तुरन्त एक ठिगने ब्राह्मण का रूप धर वेद पढ़ते हुये यज्ञ में पहंुचे । बलि उन्हें देखकर बहुत आनन्दित हुआ और कहने लगा - हे महाराज इस समय जो इच्छा हो दान में मांग लीजिये । मुनि ने कहा - हे राजन् तीन कदम भूमि दे दो । राजा ने कहा और ज्यादा मांगो । मुनि ने उत्तर दिया कि इतनी ही बहुत है । तब बलि ने तीन कदम भूमि अर्पण करके पानी छोड़ दिया । फिर क्या था, मुनिराज ने एक कदम मेरु पर्वत पर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरा कदम रखने की मनुष्य लोक में जगह नहीं रही । तब मुनिराज ने बलि से कहा हे बलि अब तीसरा कदम कहां रखूं ? वचन भंग न करो । ऐसा कहके बलि की पीठ पर पांव रख दिया । बेचारा बलि कुछ नहीं बोल सका । जब विष्णुकुमार मुनि ने अपना शरीर बढ़ाया तब हलचल मच गई । पृथ्वी कांपने लगी । देवता भयभीत होकर आये और प्रार्थना करने लगे कि क्षमा करो । क्षमा करो । तब मुनिराज ने पांव उठाया । राजा पझ भी दौड़ा आया और श्रावकों ने सात सौ मुनियों की औषधिमिश्रित आहार आदि से वैयावृत्ति की । बलि आदि ब्राह्मणों का जैनधर्म पर सच्चा विश्वास हो गया और वे पक्के जैनी हो गये । विष्णुकुमार ने मुनि होते हुये इस प्रकार के कृत्य करने का प्रायश्चित किया और घोर तप किया जिसके बल से केवलज्ञान पाकर सिद्ध हो गये । श्रावण सुदी पूर्णिमा को मुनियों के धर्म की रक्षा हुई थी, इसलिये तब से ही श्रावण सुदी पूर्णिमा को रक्षाबंधन का पर्व मनाने की परिपाटी है । हम सबको चाहिये कि धर्मात्मा जीवों से प्रीति रखें, उनके ऊपर कोई दुःख आ पड़े तो उसे दूर करें और श्रावण सुदी पूर्णिमा रक्षाबंधन के दिन विष्णुकुमार मुनि की कथा और कई पुण्य के काम बड़े उत्साह से किया करें ।